पश्चिम बंगाल में स्कूल सेवा आयोग भर्ती घोटाले पर सुप्रीम कोर्ट के गुरुवार के फैसले के बाद राज्य के सत्तारूढ़ तृणमूल कांग्रेस और विपक्षी दलों, खासकर भारतीय जनता पार्टी और वामपंथी दलों के बीच पहले से चली आ रही तनातनी और तेज हो गई है। इस फैसले ने 2016 की राज्य स्तरीय चयन परीक्षा (SLST) के तहत हुई लगभग 24,000 शिक्षकों और गैर-शिक्षण कर्मचारियों की नियुक्तियों को रद्द कर दिया, जिसे कलकत्ता हाई कोर्ट ने पहले ही अवैध घोषित किया था। सुप्रीम कोर्ट ने इसे बरकरार रखते हुए भर्ती प्रक्रिया में बड़े पैमाने पर धोखाधड़ी और अनियमितताओं को स्वीकार किया।
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यह फैसला ममता बनर्जी के नेतृत्व वाली टीएमसी सरकार के लिए एक बड़ा झटका है। भर्ती घोटाला पहले से ही राज्य में एक प्रमुख विवाद का विषय रहा है, और सुप्रीम कोर्ट का निर्णय सरकार की पारदर्शिता और प्रशासनिक क्षमता पर सवाल उठाता है। ममता बनर्जी ने फैसले पर असहमति जताते हुए कहा कि वह इसे स्वीकार नहीं कर सकतीं, लेकिन साथ ही यह भी जोड़ा कि वह अदालत का सम्मान करती हैं। उनकी यह टिप्पणी असंतोष को दर्शाती है, जो पार्टी के भीतर और समर्थकों के बीच अनिश्चितता पैदा कर सकती है।
वर्ष 2026 में होने वाले विधानसभा चुनावों से पहले यह फैसला टीएमसी के लिए राजनीतिक रूप से नुकसानदेह हो सकता है। विपक्ष इसे भ्रष्टाचार के सबूत के रूप में पेश कर रहा है, जिससे शहरी और ग्रामीण दोनों क्षेत्रों में मतदाताओं का भरोसा कमजोर हो सकता है। खासकर शिक्षित मध्यम वर्ग और युवा मतदाता, जो नौकरी और मेरिट को महत्व देते हैं, टीएमसी से नाराज हो सकते हैं।
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पूर्व शिक्षा मंत्री पार्थ चटर्जी जैसे बड़े नेताओं की संलिप्तता पहले ही पार्टी के लिए शर्मिंदगी का कारण बन चुकी है। इस फैसले से टीएमसी के भीतर नेतृत्व और जवाबदेही को लेकर सवाल उठ सकते हैं।
बीजेपी ने इस फैसले को हाथोंहाथ लिया है। पश्चिम बंगाल बीजेपी अध्यक्ष सुकांत मजूमदार और विधानसभा में विपक्ष के नेता शुभेंदु अधिकारी ने ममता बनर्जी पर सीधा हमला बोला है, उन्हें इस “भ्रष्टाचार” के लिए जिम्मेदार ठहराया और इस्तीफे की मांग की। बीजेपी इसे 2024 के लोकसभा चुनावों के बाद 2026 के विधानसभा चुनावों में एक बड़ा मुद्दा बनाने की कोशिश करेगी।बीजेपी पहले से ही पश्चिम बंगाल में अपनी पैठ बढ़ाने की कोशिश कर रही है। इस फैसले ने उसे भ्रष्टाचार विरोधी अभियान चलाने और नौकरी चाहने वाले युवाओं और मध्यम वर्ग को लुभाने का मौका दे दिया है। हालांकि, बीजेपी को यह साबित करना होगा कि वह खुद ऐसी गड़बड़ियों से मुक्त है, खासकर जब ममता ने व्यपम घोटाले का जिक्र कर पलटवार किया।
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हाल के संदेशखाली विवाद के बाद यह बीजेपी के लिए टीएमसी को घेरने का दूसरा बड़ा मौका है। पार्टी इसे “सिस्टमिक फेल्योर” के रूप में पेश कर सकती है।
सीपीआई(एम)ने इस फैसले को टीएमसी की भ्रष्ट नीतियों का परिणाम बताया है। पार्टी के नेता सुजन चक्रवर्ती और बिकास रंजन भट्टाचार्य ने सरकार पर निशाना साधते हुए कहा कि उसने एक साल के भीतर वैध और अवैध नियुक्तियों को अलग करने में विफलता दिखाई। वाम दल इसे अपने पारंपरिक समर्थन आधार, खासकर शिक्षकों और सरकारी कर्मचारियों, को वापस लाने के अवसर के रूप में देख सकते हैं।
कांग्रेस और वाम दलों का गठबंधन इस मुद्दे को उठाकर तीसरे मोर्चे के रूप में उभरने की कोशिश कर सकता है। हालांकि, उनकी राज्य में सीमित मौजूदगी इस प्रभाव को कमजोर कर सकती है।
लगभग 24,000 नौकरियों के खत्म होने से लाखों परिवार प्रभावित हुए हैं। इनमें से कई लोग, जो मेरिट के आधार पर चुने गए थे, भी इस फैसले के शिकार बने। यह असंतोष टीएमसी के खिलाफ जा सकता है, खासकर अगर सरकार इन लोगों के लिए तुरंत कोई राहत योजना नहीं लाती।
शिक्षकों की कमी से स्कूलों में पढ़ाई प्रभावित होगी, जिसका ठीकरा अभिभावक और छात्र टीएमसी सरकार पर फोड़ सकते हैं। विपक्ष इसे सरकार की अक्षमता के सबूत के तौर पर इस्तेमाल करेगा।
2019 में बीजेपी ने 40% वोट शेयर के साथ 18 सीटें जीती थीं, जबकि टीएमसी के पास 43% वोट शेयर और 22 सीटें थीं। 2024 के परिणामों के आधार पर इस फैसले का प्रभाव अलग-अलग हो सकता है। अगर बीजेपी 2024 में बेहतर प्रदर्शन करती है, तो यह मुद्दा उसे और मजबूती देगा। वहीं, टीएमसी की मजबूत जीत इस नुकसान को कम कर सकती है।
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विश्लेषकों का मानना है कि यह फैसला त्रिपुरा (2018) की तरह हो सकता है, जहां भ्रष्टाचार के मुद्दे ने वामपंथी सरकार को उखाड़ फेंका था। हालांकि, ममता की ग्रामीण लोकप्रियता और कल्याणकारी योजनाएं अभी भी उनकी ढाल बनी हुई हैं।
सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला पश्चिम बंगाल की राजनीति में एक टर्निंग पॉइंट बन सकता है। टीएमसी के लिए यह संकट को अवसर में बदलने की चुनौती है—नई भर्ती प्रक्रिया को पारदर्शी और तेजी से पूरा करना उनकी प्राथमिकता होगी। वहीं, बीजेपी और वाम दल इसे भुनाने की पूरी कोशिश करेंगे। अंततः, मतदाता इस फैसले को टीएमसी की नाकामी के रूप में देखते हैं या विपक्ष की “साजिश” के रूप में, यह 2026 के चुनावी नतीजों में साफ होगा। अभी के लिए, यह मुद्दा राज्य की सियासत को गरमाए रखेगा।