
गीत वही गाता हूँ।
नये गीत गाने का,
जोश कहाँ पाता हूँ?
गीत वही गाता हूँ।
शोषित मानवता का,
दलित की रोटी का,
लूटी हुई इज्जत का,
टूटे हुए सपनों का,
खंडित खिलौनों का,
मरते नौनिहालों का,
गीत गुनगुनाता हूँ,
गीत वही गाता हूँ।

सूखे खलिहानों का,
फटी हुई धरती का,
कटे पिटे वृक्षों का,
विषाक्त सी लहरों का,
दमघोटू वायु का
परचम लहराता हूँ,
गीत वही गाता हूँ।
तुम तो बलशाली थे,
तुम मे तो कुब्बत थी,
कहते थे मंचों से,
गीत नया गाता हूँ,
पर क्या ये देखा है,
क्या तुमने समझा है,
नूतन तो छोडो,
पुरातन भी गाये कब?
कहना था…. ………,
कहते थे,
बातें नये गीतों की,
छलते थे,
तुम भी,
बिलखती मानवता को।

ठाना है मैने,
गीत वही गाऊँगा,
नया नहीं गाऊँगा,
बिरहा, विदाई और लोरी सुनाऊँगा।
जब कोई पुछेगा,
गीतों के बारे में,
वही पुरानी सी,
कबिरा की भाषा मे,
कुछ गुनगुनाऊँगा…….
कवनो ठगवा नगरिया लूट ल हो.
