
मरघट पे मची चिल्लपों,
नीरव है जिंदगी,
कागज के फूल झूलते,
झुलसा गुलाब है।
है जेद्दोजेहद,
रंग से दुनिया निखार दें,
महलों को क्यूँ ,
हम झोपडे को रंग मे डुबों दें।
आवरण ये हम ओढ के,
कहकहे लगा लें,
चूते हुए छप्पर से हम दुनियाँ संवार लें।
जो बात यूँ करें की हक जिंदगी का हम,
हर टाट हुई जिंदगी का रस निचोंड लें।
मरते हैं इस जहाँ में वे ही शख्स जो “जिंदा”,
मुरदे तो मरे हैं,यहाँ पे,”जन्म से पहले”।
‘हर लाश’, जो,”यतीम” है,
निवाला है “गिद्ध” का,
पर गिद्ध को ‘आकाश’ मे न उडते है देखा,
वे रहते इस जमीन पर,अब रुप बदल के।
गिद्धों को मार, गिद्ध नये,आ गये यहाँ,
पहचान जो करे, वो ही,अब इनका निवाला।
हम तो बेकार में, शिकार पे,निकले थे उम्र भर,
मुरदों पे बसर करने का जब चलन जोर था।
कविता के रचाईयता वर्तमान समय में हुगली जिले के एक सुप्रसिद्ध हिन्दी विद्यालय के प्रधानाचार्य हैं